फर्क - चेहरे और मुखौटे का- एक कविता | शाम्भवी पाण्डेय

     फर्क - चेहरे और मुखौटे का- एक कविता | शाम्भवी पाण्डेय


फर्क करना सीख लो, मुखौटे और चेहरे में,

कदम कदम पर यहाँ लोग, धरे हैं रूप लुटेरो के ।

                     
Poems by shambhavi Pandey,www.shambhav.co.in


इंसान ही इंसान को धोखा देता, 

बनके भेड़िया अपनो को नोचता

मानवता अब कुछ ही शेष है, 

ईष्या द्वेष फैला चहु ओर है

इंन्सानियत का पाठ भी, 

अब तो है सिर्फ किताबों में

अब तो हर व्यक्ति है उलझा, 

स्वयं के बुने फरेबी जालो में |


फर्क करना सीख लो, मुखौटे और चेहरे में

कदम कदम पर यहाँ ,लोग धरे हैं रूप लुटेरो के ॥

                         


आज तो हर घर घर में ,

रामलीला का मंच सजता है

कोई रावण तो कोई मंथरा ,

पर दिखता इसमें भी धोखा है

रावण के जैसी मर्यादा नहीं ,

ना है मंथरा जैसी स्वामिभक्ति कहीं

यहां मुखौटे के पीछे का सच तो,

सिर्फ लालच और धोखा है ।


फर्क करना सीख लो,मुखौटे और चेहरे में

कदम कदम पर यहाँ,लोग धरे हैं रूप लुटेरो के ॥


जहां की हवा में सॉस है लेते

वहीं जहर फैलाते हैं

जिस माँ के आँचल में हैं सोते

उसी में दाग लगाते हैं

संभल के रहना अपने घर में,

छिपे हुए गद्दारों से 

हो सावधान पहचानों इनको

क्या हैं ये हिन्दुस्तान से ?


फर्क करना सीख लो,मुखौटे और चेहरे में

कदम कदम पर यहाँ,लोग धरे हैं रूप लुटेरो के ॥


  - शाम्भवी पाण्डेय


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